ललऊ बुआ और रामा, श्यामा
महेश शर्मा, Kanpur
सफेद सूती धोती में लिपटी गोरी चिट्टी कृशकाय, उम्र के बोझ के चलते कमर हल्की सी झुकी हुई ललऊ बुआ को मेजबान-ए-खुशूशी से नवाज दिया जाए तो कोई बड़ी बात न होगी। उनके दिल में खासकर छोटे-छोटे बच्चों के लिए बेपनाह मुहब्बत थी। शहर से गांव आने वाले मेहमान और उनके बच्चों के प्रति प्यार तो देखते ही बनता था। ललऊ बुआ अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर उनके इंतकाल के कई बरस बीत जाने के बाद भी वह गांव की दर-ओ-दीवार में आज भी रचती-बसती हैं। उनकी दो गायें रामा और श्यामा के चेहरे पर भी उतना ही ममत्व टपकता था, जितना ललऊ बुआ के। गाय भी तो माता का दूसरा रूप कही जाती हैं। हालांकि उनके पास एक भैंस भी थी। वह भी उनके व्यवहार की आदी हो चुकी थी। नाम था दुलारी। स्वभाव भी गाय की तरह।
यूपी के उन्नाव जिले की रायबरेली लाइन में बैसवारा स्टेशन पर उतरकर एक मील दक्षिण की तरफ गौरा गांव भी ललऊ बुआ के स्वभाव से मेल खाता था। यह हमारी जगरानी मौसी का भी गांव था जहां पर हम गरमी की छुट्टियों में जाया करते थे। कभी-कभी मेरे मिलिट्री वाले रामप्रसाद भइया (मौसेरे भाई) मेरे ममाने से मुझे ले जाते थे। पाहुन (मेहमान) चाहे किसी भी घर का हो अगर उसके बच्चे ललऊ बुआ के घर की तरफ दिख जाते तो उन्हें प्यार से बुलाकर गिलसिया भर के दूध, पेड़ा या शक्कर मिला खोआ जरूर खिलाती थी। मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से था जिन्हें ललऊ बुआ का भरपूर प्यार मिलता था। हालांकि मेरा लालच था उनकी गायें रामा और श्यामा के दूध से बने खोआ के पेड़े, दुधभड़ि में कंडे की धीमी आंच पकता दूध जो धीरे-धीर हल्का लाल रंग का हो रहा होता और उस पर जमी मलाई की परत पर मेरी पूरी निगाह रहती थी।
दूध में मलाई की परत डालते समय बुआ मेरी ओर कनखियों से देख लेती थी। मेरी अम्मा का नाम रुक्मिणी देवी था जो ललऊ बुआ की पक्की सहेली थी। सब प्यार से उन्हें रुकमिन कहते थे। बुआ के अपने दो बेटे और जब मैं पहुंच जाऊं तो दोनों के हिस्से का भी प्यार मेरे हिस्से में आ जाता था। वे दोनों बड़े थे। बुआ की खास हिदायत थी रुकमिन (मेरी मां को ललऊ बुआ इसी नाम से पुकारती थी) के लरिका का कबौ डांटेव ना। गरमी की छुट्टी के हफ्ता खांड़ बीतते ही ललऊ बुआ पूछती थी रुकमिन का लरिका नहीं आवा। मुझे उनके यहां जाने की चाह रहती थी। उसकी वजह दुधमड़ि का दूध, पेड़ा और रामा और श्यामा गाय के दूध का दानेदार घी। घी खाते ही हमें ताकत और स्फूर्ति की अनुभूति होती थी। लगता था कि शरीर में कुछ तेजी आ गयी है। बच्चा होने के कारण भी यह अनुभूति संभव थी।
हमें कभी महसूस ही नहीं हुआ कि ललऊ बुआ मुस्लिम परिवार की हैं। हमारी अपनी सगी बुआ भी होती तो इतना प्यार शायद न दे पाती। प्यार बांटने में उन्होंने कभी भेदभाव नहीं किया। कई घरों में वह दूध भी बेचती थी जिससे उनका खर्चा चलता था। हम भाई बहनों के गौरा गांव पहुंचने पर निश्चित उनके (बुआ) खर्च में कटौती होती होगी पर इसका उन्हें कभी मलाल नहीं हुआ। न ही चेहरे पर अपने-पराये जैसे भाव आए। ब्राह्मण परिवार का होने के बाद भी ललऊ बुआ के घर जाने की मुझे पूरी छूट थी। दरअसल पहले मिलजुलकर रहने का ग्रामीण कल्चर ही ऐसा था। मां ढूंढ़ते हुआ उनके घर पहुंच जाती थी और मैं मिल जाता था। उनके बेटे बड़े भाई की तरह व्यवहार करते थे। छुट्टी बिताकर लौटते समय बुआ अलमुनियम के छोटे से डिब्बे में घी पैक करके देती थी। मेरी मां पूछती थी, ‘ललऊ तुम यहिका बिगारे हो।‘ उनका जवाब होता था ‘यहिकी मौसी के घर मा गायी तो है नाहीं, फिर हमका कौन नुकसान हुई जात है। बेचारा थोड़ा दूध घी पा जात है। अब रुकमिन तुम चुप्पे रहो।‘ आज ललऊ बुआ जीवित होती तो उनका दूध घी का कारोबार बढ़ गया होता।
घर की दीवार पर बोर्ड टंगा होता, ‘ललऊ दुग्घ भंडार, शुद्धता की सेंट परसेंट गारंटी।‘ कानपुर आने पर ललऊ बुआ वाला घी जरूर लाता था। बुआ कहती भी थी गाय के दूध से बने घी में गिजा बहुत होती है। पढ़ने में तेज हो जाओगे। मुझे शहर में स्कूल जाने से पहले रोटी पर चुपड़कर मुझे ही दिया जाता था। कभी धनिया वाला नमक तो कभी लाल मिर्च वाला नमक तो कभी बुकनू के साथ। उस दानेदार घी की खुशबू में ललऊ बुआ का प्यार मन को खुशनुमा कर देता था। ऐसी घी की तो बात ही कुछ और है। फिर चाहे ललऊ बुआ के हाथों का बना हो किसी और मां के हाथों। आंगन में दोनों हाथों से मथानी चलाकर मक्खन निकाल घी बनाने की प्रक्रिया भी देखने का अलग ही आनंद है